Tuesday, July 10, 2018
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ग़ज़ल-रहमान फ़ारिस, नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है
नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है सौ पेश-ए-यार निगाहें झुकाना बनता है वो लाख बे-ख़बर-ओ-बे-वफ़ा सही लेकिन त...
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हक़ीक़त में अपना मैं तुमको बनाकर मैं ले जाऊंगा सबसे तुमको छुपाकर के मेरी रियासत हो तुम..... बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम.... ये माना है मैंने क...
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अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा मगर वो आँखें हमारी कहाँ स...
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आला हजरत तहरीर फरमातें हैं… उन्हें जाना, उन्हें माना, न रखा गैर से काम लिल्लाह हील-हम्द मैं दुनिया से मुसलमान गया ला-वरब्बील अर...
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