बरस गुज़रे तुम्हें सोए हुए
उठ जाओ सुनती हो अब उठ जाओ
मैं आया हूँ
मैं अंदाज़े से समझा हूँ
यहाँ सोई हुई हो तुम
यहाँ रू-ए-ज़मीं के इस मक़ाम-ए-आसमानी-तर की हद में
बाद-हा-ए-तुंद ने
मेरे लिए बस एक अंदाज़ा ही छोड़ा है!
नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है सौ पेश-ए-यार निगाहें झुकाना बनता है वो लाख बे-ख़बर-ओ-बे-वफ़ा सही लेकिन त...
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