Wednesday, May 1, 2019

ग़ज़ल-रहमान फ़ारिस, नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है


नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है
सौ पेश-ए-यार निगाहें झुकाना बनता है
वो लाख बे-ख़बर-ओ-बे-वफ़ा सही लेकिन
तलब किया है गर उस ने तो जाना बनता है
रगों तलक उतर आई है ज़ुल्मत-ए-शब-ए-ग़म
सो अब चराग़ नहीं दिल जलाना बनता है
पराई आग मिरा घर जला रही है सो अब
ख़मोश रहना नहीं ग़ुल मचाना बनता है
क़दम क़दम पे तवाज़ुन की बात मत कीजे
ये मय-कदा है यहाँ लड़खड़ाना बनता है
बिछड़ने वाले तुझे किस तरह बताऊँ मैं
कि याद आना नहीं तेरा आना बनता है
ये देख कर कि तिरे आशिक़ों में मैं भी हूँ
जमाल-ए-यार तिरा मुस्कुराना बनता है
जुनूँ भी सिर्फ़ दिखावा है वहशतें भी ग़लत
दिवाना है नहीं 'फ़ारिस' दिवाना बनता है

तहज़ीब हाफ़ी, किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है

किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है
अजीब दुख है हम उस के हो कर भी उस को छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बट रही है
मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है
मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझ से लिपट रही है
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
सो इस तअ'ल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंध छट रही है

ग़ज़ल-रहमान फ़ारिस, नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है

नज़र उठाएँ तो क्या क्या फ़साना बनता है सौ पेश-ए-यार निगाहें झुकाना बनता है वो लाख बे-ख़बर-ओ-बे-वफ़ा सही लेकिन त...